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Learn About Me

सीढ़ियां दर सीढ़ियां

1. जन्मः- 7 जुलाई 1954, टाँडगढ़ अजमेर
2. शिक्षा:- एम.ए., एलएलबी, बीजेएमसी विद गोल्ड मैडल, एमजेएमसी, पीएचडी
3.विशेष उपलब्धि - राजस्थान प्रशासनिक सेवा में नियुक्ति ।
4. पत्रकारिता का सफर 1977 से अब तक निरन्तर लगभग 46 वर्ष

5. विभिन्न मीडिया संस्थानों में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां :-
  i) दैनिक नवज्योति में रिपोर्टर से लेकर चीफ रिपोर्टर एवं पारी प्रभारी तक का प्रभार पूरे 20       वर्ष
  ii) दैनिक भास्कर अजमेर में स्थानीय सम्पादक - दो पारियों में लगभग 17 वर्ष
  iii) दैनिक भास्कर जयपुर में राजस्थान के सम्पादकीय प्रभारी-लगभग 9 वर्ष

6. प्रकाशित पुस्तकेंः-
  i) समाचार परीक्षण (पत्रकारिता) - राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी
  ii) व्यावहारिक समाचार संकलन व लेखन- (पत्रकारिता) राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी
  iii)सिटी रिपोर्टिंग (पत्रकारिता) साहित्यागार - जयपुर
  iv) चकल्लस - (व्यंग्य संग्रह)
  v) भीड़ में तनहाइयां (गजल संग्रह) - साहित्यागार जयपुर
  vi) जीने की जिद - (जीवन प्रबन्धन) - राजकमल प्रकाशन-नई दिल्ली-(प्रकाशनाधीन)

7. अन्य लेखन - लम्बे समय तक दैनिक नवज्योति एवं दैनिक भास्कर में लोकप्रिय व्यंग्य कॉलम चकल्लस का लेखन, सैकड़ों सम्पादकीय टिप्पणियां, दैनिक भास्कर के सम्पादकीय पृð पर अनेक लेख व सम्पादकीय, राï­ीय स्तर के कई पत्र पत्रिकाओं में विभिन्न विषयक लेख ।
8. पत्रकारिता शिक्षण एवं प्रशिक्षण- लम्बे समय तक कोटा खुला विश्वविद्यालय, राजस्थान
विश्वविद्यालय जयपुर एवं इंदिरा गांधी खुला विश्वविद्याbय में पत्रकारिता शिक्षण, पत्रकारिता पर बीसियों संगोðियों व कार्यशालाओं में सम्बोधन, विश्वविद्यालयों में पी. एचडी. गाइड (रिसर्च सुपरवाइजर) के रूप में लम्बी सेवा, विभिन्न विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता पाठçक्रम तैयार करने में योगदान - पत्रकारिता में विश्व-विद्यालय स्तर पर पाठçक्रम लेखन
9. संगठनात्मक नेतृत्वः-
लगभग 7 वर्ष तक नवज्योति श्रमिक संघ के अध्यक्ष, तीन वर्ष तक अजमेर जिला श्रमजीवी पत्रकार संघ के अध्यक्ष, दो वर्ष तक राजस्थान श्रमजीवी पत्रकार संघ के सचिव, अजयमेरु प्रेस क्लब के संस्थापक अध्यक्ष एवं वर्तमान में छठी बार निर्वाचित अध्यक्ष ।

10. आयोजनात्मक कार्य :-
    i) लगातार 10 वर्ष तक अजमेर संगीत कला केन्द्र के सचिव रहते हुए शास्त्रीय संगीत के 10 राष्ट्र स्तरीय अजमेर संगीत समारोह आयोजित करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका ।
    ii) प्रतिवर्ष होली के अवसर पर आयोजित होने वाले फाल्गुन महोत्सव को आयोजित करने वाली फाल्गुन समारोह समिति के संस्थापक सदस्यों में से एक तथा आयोजन में
       महत्वपूर्ण भागीदारी ।
    iii) अजमेर में हुए निम्नलिखित चार ऐतिहासिक आयोजनों का अलग अलग भूमिकाओं में, सम्पूर्ण निर्देशन, समन्वय एवं नेतृत्व ।
    iv) 2013 में अजमेर मेराथन दौड़ का, अजमेर फोरम के संयोजक के रूप में
    v) 2015 में भव्य साईकिल रैली का, अजयमेरु प्रेस क्लब के अध्यक्ष के रूप में ।
    vi) 2017 में जिला प्रशासन द्वारा आयोजित एक भव्य मेराथन दौड़ का अजमेर फोरम एवं अजयमेरु प्रेस क्लब के संयुक्त संयोजक के रूप में ।
    vii) 2019 में दैनिक भास्कर द्वारा बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ संदेश के साथ आयोजित एक मैराथन का नेतृत्व दैनिक भास्कर के सम्पादक के रूप में किया ।

11. वर्ष 1977 से लेकर 1997 तक:- दैनिक नवज्योति में एवं 1997 से अब तक वरिðतम पदों पर 45 वर्ष से अधिक समय तक मुख्यधारा की पत्रकारिता में निरन्तर सक्रिय रहने वाले ये राज्य के चुनिंदा पत्रकारों में से एक हैं । हाल ही में इनके नेतृत्व में दैनिक भास्कर अजमेर को भास्कर समूह के 5 सर्वश्रेð संस्करणों में से एक घोषित किया गया है ।



शख्सियत

उमेश कुमार चौरसिया की डॉ. रमेश अग्रवाल से एक लम्बी बातचीत
प्र. आपने पत्रकारिता को ही अपने कर्म क्षेत्र के रूप में क्यों चुना ?
मैंने अपने विद्यार्थ जीवन के दौरान कहीं पढ़ा था कि व्यक्ति का असुरक्षा बोध ही कई बार उसकी प्रेरणा या यूं कहें ताकत बन जाता है । अपनी विशेष शारीरिक स्थिति के कारण मुझे न सिर्फ अपने जीवन की मंजिल खुद तय करनी थी बल्कि मंजिल तक पहुँचने का रास्ता भी अपने आप ही बनाना था । मुझे इस बात का अहसास तो था कि अपनी शारीरिक कमजोरी को कम्पेन्सेट करने के लिये किसी अन्य रूप में शक्ति सम्पन्न बनना होगा मगर यह पता नहीं था कि शक्ति का वह स्वरूप क्या होगा । जैसा कि लॉ आफ एट­ेक्शन कहता है व्यक्ति की इच्छा की तीव्रता ही उसकी ताकत बन जाती है । रास्ते खुद ब खुद बन जाते हैं और मंजिलचल कर स्वयं ही उसकी ओर बढ़ने लगती है । पोस्टग्रेजुएट की परीक्षा पूरी होने के बाद गर्म की छुट्टिया-शुरु हुई ही थीं कि एक दिन मेरे एक मित्र ने बताया कि दैनिक नवज्योति में अनुवादक की वेकेन्सी निकली है । महज अपने आपको आजमाने की गरज से नवज्योति कार्यालय जा पहुँचा । गेट पर मिले अरविन्द अग्रवालजी ने सम्पादकीय विभाग में उस समय बैठे वरिð पत्रकार श्री भुवनेन्द्र बरुआजी के पास भेज दिया । बरुआजी ने बगैर मेरी ओर देखे यू. एन. आई. का एक अंग्रेजी समाचार मेरी ओर बढ़ा दिया । मैंने हाथों हाथ हिन्दी में इसका अनुवाद कर उन्हें थमाया और इसके साथ अनायास ही मेरा पत्रकारिता से एक लम्बा रिश्ता शुरु हो गया । पिछले 45 साल के दौरान आज तक पत्रकारिता में किसी पद के लिये न मैंने कभी कोई आवेदन किया है और न किसी ने मेरी शैक्षणिक डिग्रियों की ही जाँच की है ।

प्र. अपनी शारीरिक चुनौती के बावजूद आपने पत्रकारिता जैसे गतिशील व्यवसाय में साढ़े चार दशक का लम्बा समय गुजारा किस सोच में इस कार्य में आपको ताकत दी ?
लम्बे अनुभव के बाद मैंने सीखा कि किसी भी व्यक्ति का व्यक्तित्व उसके शरीर, उसकी मानसिक क्षमता और उसके द्वारा किये गये कार्या को मिलाकर बनता है । कोई भी मनुष्य इन तीनों ही दृïियों से सम्पूर्ण कभी नहीं होता । आम मनुष्य प्रायः किसी एक ही क्षेत्र में सर्वश्रेð हुआ करता है । मनुष्य की इसी श्रेðता अथवा विशेष योग्यता से उसकी पहचान बनती है उसकी किसी कमी से नहीं । पहलवानों, फिल्मी हस्तियों अथवा मॉडलों की पहचान उनकी शारीरिक विशिïताओं से बनती है तो लेखकों, चिन्तकों अथवा शिक्षकों की पहचान उनकी बौद्धिक क्षमताओं से इस मायने में हर इन्सान के पास जहाँ कोई न कोई विशेष योग्यता है वहीं, कहीं न कहीं हर इन्सान अधूरा भी है । यह अधूरापन हर इन्सान के लिये जीवनभर एक चुनौती और पुरुषार्थ की प्रेरणा का काम करता है । मैंने सदैव अपनी मानसिक अथवा बौद्धिक क्षमताओं के विकास पर ही ध्यान दिया है तथा इन्हीं के बलबूते अपनी पहचान बनाकर, कथित शारीरिक चुनौती को चुनौती देने का प्रयास किया है ।

प्र. आपमें जीवन के प्रति यह सकारात्मकता आरम्भ से थी अथवा किसी घटना या टर्निंग प्वाइंट के बाद आपमें कोई परिवर्तन आया ?
आप इसे टर्निंग प्वाइन्ट ही कह सकते हैं । यह घटना तबकी है जब मैं गवर्नमेन्ट कॉलेज अजमेर में अध्ययन कर रहा था । इस घटना का उल्लेख मैंने अपनी पुस्तक जीने की जिद में भी किया है । उन दिनों शहर में न तो परिवहन के लिये बहुत साधन उपलब्ध थे और न ही सवार के लिये मोबाइल जैसी सुविधाएँ अपनी शारीरिक चुनौती के कारण मुझे एक साइकिल चालक मासिक पारिश्रमिक लेकर कॉलेज छोड़ने व वापस लाने का काम किया करता था । एक दिन कॉलेज छूटने के बाद भी श्याम नामक यह साइकिल चालक मुझे लेने नहीं आया । कॉलेज 3 बजे छूट गया मगर शाम 5 बजे तक भी श्याम मुझे लेने नहीं आया । यहां तक कि मेरे सहपाठी अपने रोजाना के नियमानुसार खेलने के लिये कॉलेज के मैदान आ पहुँचे । मुझे देखते ही उन्होंने जब कारण पूछा तो मेरी आखें नम हो आई एक साथी अपनी साइकिल पर मुझे घर तो छोड़ गया मगर इतनी ग्लानि हुई कि उसी रात अपना जीवन समाप्त करने का निर्णय ले लिया । रात होने के बाद मैं एक विषाक्त दवा लेकर सबके सोने का इन्तजार कर रहा था उसी दौरान टेबल पर रखी कोर्स की एक किताब ने परीक्षा से जुड़ी एक घटना मुझे याद दिला दी । इसी किताब से जुड़े विषय की परीक्षा में मैं सिलेक्टेड चैप्टर्स की पढ़ाई करके गया था मगर प्रश्न पत्र में एक भी प्रश्न मेरे पढ़े हुए चैप्टर्स में से नहीं आया । मैंने अपने आपको इस विषय में फेल मानते हुए कॉपी छोड़कर जाने का इरादा कर लिया मगर परीक्षक ने एक घंटा पूरा होने से पहले बाहर जाने की अनुमति देने से मना कर दिया । मैंने समय गुजारने के इरादे से प्रश्न पत्र दोबारा पढना शुरु कर दिया । इसी दौरान दिमाग में एक नये खयाल ने जन्म लिया । मैंने सोचा फेल तो अपन हो ही चुके हैं । अब एक घण्टा यहां रुकना भी जरुरी है । इस बीच इस उत्तर पुस्तिका और कलम के इस्तेमाल से अपने को कोई रोक नहीं सकता । क्यों न इस एक घण्टे का अपने अन्दाज में आनंद लिया जाये । मैंने प्रश्न पत्र में से एक ऐसा प्रश्न चुना जिसमें लिखे कुछ शब्द जैसे जनमत, दबाव समूह, हित समूह आदि । मैंने इन शब्दों से जुड़ी अपनी तमाम स्मृतियाँ-खंगाली और जितना कुछ मैं जानता था उसको चटपटी भाषा में अत्यन्त रोचक तरीके से धीरे- धीरे लिखना शुरु किया । जैसे-जैसे लिखता गया नई बातें याद आती गई और लिखने की रफ्तार बढ़ती गई । एक घण्टे बाद परीक्षक ने सूचित किया अब आप चाहें तो जा सकते हैं । मगर अब मुझे अपने मन की लिखने में मजा आ रहा था । सवा घंटे में मैंने पहले प्रश्न का अपने अन्दाज में उत्तर लिखा । फिर विचार आया पूरे तीन घंटे अपने अधिकार में हैं । क्यों न थोड़ा और मजा लिया जाये । एक और प्रश्न उठाया और उसके साथ भी यही किया । अन्तिम पन्द्रह मिनट बचने तक मैं चार सवालों के जवाब लिख चुका था । अन्तिम पन्द्रह मिनट में मैंने पाचवें प्रश्न के उत्तर में भी कुछ न कुछ लिख ही डालों परीक्षा भवन से बाहर निकला तो मन सिर्फ यह सोचकर प्रफुल्लित था कि कुछ न आने के बावजूद मैंने लिखा कितने शानदार तरीके से परीक्षा परिणाम का बिल्कुल इन्तजार नहीं था मगर जब परिणाम आया तो यह देखकर हैरान था कि इस पर्चे में मेरे हाईएस्ट अंक थे । हाथ में विषाक्त दवा लिये आधी रात को याद आये उपरोक्त वाक्ये ने यकायक एक नई रोशनी दिखाई । मैंने सोचा । ईश्वर की ओर से वरदान में मिला ये जीवन परीक्षा के तीन घण्टे हैं । मेरी बुद्धि मेरी कलम है और ये संसार उत्तर पुस्तिका परीक्षा में पास न भी हो पाये तो जीवन का आनंद तो लिया ही जा सकता है । हाथ में थामी निराशा की शीशी मैंने खिड़की से बहुत दूर फेंक दी । उस दिन के बाद से मैं पास-फेल की चिंता किये बगैर बस जीवन का आनंद लिये चला जा रहा हूँ ।

प्र. क्या अपने पत्रकारिता जीवन का कोई यादगार किस्सा आप बता सकते हैं ?
यूं तो इतने लम्बे कार्यकाल में सैकड़ों यादगार पल हैं मगर अपने पत्रकारिता जीवन के आरम्भिक दिनों का एक किस्सा मैं यहा शेयर करता हूँ । मैं उन दिनों दैनिक नवज्योति समाचार पत्र में सम्पादकीय सहायक के रूप में कार्य कर रहा था । मुझे पत्र में कार्य करते हुए मुश्किल से एक डेढ़ साल का समय हुआ होगा । एक दिन दोपहर के समय अचानक सूचना मिली कि अजमेर के पहाड़गंज क्षेत्र में एक स्कूल का भवन गिर जाने से 14 बच्चे दबकर जान से हाथ धो बैठे हैं । उस समय दफ्तर में कोई रिपोर्टर मौजूद नहीं था तथा मोबाइल उन दिनों होते नहीं थे । पत्र के मालिक श्री दीनबंधुजी चौधरी ने मुझसे कहा कि मैं किसी रिपोर्टर की तलाश करवाता हूँ तब तक आप मौके पर पहुँचों । मेरे पास लाल रंग की एक एटलस रेसिंग साइकिल हुआ करती थी । मैं स्वयं ऐसे मौके की तलाश में था जिसे पाकर मैं कुछ कर दिखा सकूं । इससे पहले कि कोई दूसरा रिपोर्टर इस मौके को छीन लेता मैंने अपने एक मित्र को साथ लिया और स्कूल भवन जा पहुँचा । धराशायी स्कूल के ज्यादातर बच्चे और स्टॉफ मौके से जा चुके थे मगर जो लोग मौजूद थे उनसे मैंने जानकारी लेकर उन सब लोगों के नाम पते एकत्रित किये जिन्होंने समस्त घटनाक्रम को जीवन्त देखा था । मेरा मकसद पूरे घटनाक्रम को ज्यादा से ज्यादा लाइव दिखाने का था । मुझे बताया गया कि स्कूल आने वाले ज्यादातर बच्चे पहाड़ के ऊपर रहते हैं । मैंने हिम्मत की और मेरे मित्र ने साइकिल को पीछे से धक्का लगाया और हम पहाड़ के ऊपर जा पहुँचे । मैंने बहुत से बच्चों और अभिभावकों से घर-घर जाकर बात की । उनकी मर्म स्पर्श बातें सुनकर सारा दृश्य मेरी आखों के सामने जीवन्त हो उठा । मैंने दफ्तर पहुँचकर न सिर्फ लाइव रिपोर्ट लिखी बल्कि मृत 14 बच्चों के घरों की हालत पर मार्मिक आलेख भी लिखा । अगले दिन हमारे पत्र का कवरेज न सिर्फ सबसे अच्छा रहा बल्कि अपने आलेख पर लोगों से मिली प्रशंसा ने मुझे आगे लिखने की प्रेरणा भी दी ।

प्र. आपने वकालत और डॉक्टरेट की पढ़ाई की इन दोनों ही पेशों को नहीं अपनाया, प्रशासनिक सेवा में चयनित हुए मगर सरकारी सेवा में नहीं गये, अपने मौजूदा संस्थान में भी आपने राजस्थान के सर्वोƒ पद को छोड़कर एक यूनिट के प्रभारी का पद स्वीकार कर लिया । संगठनात्मक गतिविधियों के दौरान भी आप कई बार अपने दायित्वों से इस्तीफा देते रहे हैं । क्या यह सब आपके पलायन वादी स्वभाव का प्रतीक नहीं है ?
आप ऐसा कह सकते हैं । मगर उपरोक्त सभी बातों के कारण सर्वथा अलग अलग रहे हैं । वकालात की पढ़ाई तब की जब पत्रकारिता को पूरी तरह से व्यवसाय के रूप में अपनाया नहीं था । पी. एच. डी. में पत्रकारिता का विषय इसलिये चुना ताकि जो व्यवसाय कर रहा हँू उसमें पूरी तरह पारंगत हो सकूँ प्रशासनिक सेवा का पद इसलिये छोड़ा क्योंकि मेरा चयन मेरिट लिस्ट में अपने स्थान के आधार पर हुआ था मगर मेरी नियुक्ति आरक्षण के आधार पर दर्शाई जा रही थी । राजस्थान हाईकोर्ट द्वारा मेरे पक्ष में फैसला हो जाने के बाद मैं इसलिये राजकीय सेवा में नहीं गया क्योंकि यह फैसला आते-आते 11 साल का समय बीत चुका था और तब तक मैं पत्रकारिता के नशे का आदी हो चुका था । दैनिक भास्कर में राज्य स्तर का पद छोड़कर इसलिये आ गया क्योंकि अजमेर शहर के बगैर मैं अपने जीवन की कल्पना नहीं करता । संगठनों की जिम्मेदारियों से मैं कभी भागा नहीं । जब जब भी मुझे लगा कि मैंने अपनी तात्कालिक जिम्मेदारी पूरी कर ली है मैंने स्वेच्छा से ब्रेक ले लिया । कई बार मैंने आगे होकर जिम्मेदारी स्वीकार भी की है ।

प्र. पत्रकारिता जैसे प्रभाव के केन्द्र में इतने लम्बे समय रहने के बाद भी आप कई तरह के आरोपों से अपने आपको बचाये कैसे रख पाये ?
मुझे नहीं मालूम दुनियाँ यह क्यूं कहती है कि ईमानदारी की डगर बहुत मुश्किल है । मेरा तो यह मानना है कि बेईमानी का रास्ता अधिक मेहनत का, मुश्किल और चुनौतियों से भरा है । मैं अपने बारे में सिर्फ इतना जानता हूँ कि मैं स्वभाव से दरअसल एक आलसी और आराम पसन्द इन्सान और ईमानदार रहने के लिये तय रास्ते पर बस चलते रहने के सिवा खास कुछ करने की जरुरत नहीं पड़ती । ईमानदारी से इतर कोई दूसरा रास्ता अपनाने के लिये बहुत सी जोड़तोड़, हिसाब-किताब और मेहनत करनी पड़ती है । मेरी गणित और याद्दाश्त दोनों ही थोड़े कमजोर है । जो सहज और सही है उसके पीछे चलना मुझे आसान लगता है । इसी बात का दूसरा पक्ष यह भी है कि जो लोग सर्व सक्षम हैं उनके पास मंजिल तक पहुँचने के लिये बहुत से रास्ते हैं । वे शॉर्टकट रास्ते में मिलने वाली भीड़ के धक्के खाकर भी आगे बढ़ सकते हैं मगर मेरे लिये उसी रास्ते को चुनना जरुरी है जिस पर भीड़ थोड़ी कम हो ।

प्र. शहर के शीर्षस्थ एवं प्रभावशाली लोगों की महफिल के बजाय आप मुड्डे और थड़ियों की चौपाल पर अधिक दिखाई देते हैं । क्या इसका कोई विशेष कारण है ?
मेरे जीवन का सबसे बड़ा मकसद खुश रहना है और सहज जीवन में मुझे खुशी मिलती है । रुतबेदार लोगों की तरह होंठ सिकोड़े रखना, बुद्धिमानों की तरह माथे पर त्योरियाँ सजाये रहना अथवा सभ्रान्त लोगों की तरह पेन्ट की क्रीज को ज्यादा देर तक संभाले रखने में मुझे तनाव महसूस होता है । सफल लोगों के वैभव अथवा जीवन शैली से मुझे कोई परेशानी नहीं है । धन अथवा ज्ञान में बड़े लोगों से भी कोई द्वेष नहीं है । मगर जिस दुनिया में मुझे अपने व्यक्तित्व के क्रिडेन्शियल्स दिखाने पड़े वहाँ मैं सहज नहीं रह पाता । तनाव की दुनियाँ मुझे ज्यादा देर बाँधकर नहीं रख पाती । जहाँ उन्मुक्त ठहाके न हों, जहाँ खिलढड़ापन न हो जहाँ मस्ती न हो मुझे वहाँ अधिक समय गुजारना, कीमती जीवन को नï करने जैसा लगता है । जो जैसे हैं वैसे ही दिखने वाले लोगों के बीच मैं आनन्द महसूस करता हूँ । इन लोगों के बीच मुझे अपनी योग्यताओं के प्रमाण-पत्र भी दिखाने की जरुरत नहीं पड़ती । एक लम्बे सानिध्य के बाद वे लोग मुझे थोड़ा बहुत जान ही गये हैं कि मैं उनका सानिध्य क्यों पसन्द करता हूँ ।

प्र. अक्सर देखा जाता है कि महत्वपूर्ण कार्या में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के बाद भी आप आत्मप्रचार में ऊर्जा नहीं लगाते । क्या आपके साथ कभी ऐसा हुआ है कि काम आपने किया हो और नीचे हस्ताक्षर किसी और ने कर दिये हो ?
पहली बात तो यह कि अब तक के जीवन में मुझे ऐसा कोई महान कार्य करने का सौभाग्य नहीं मिला जिसका श्रेय लेने की कोई होड़ मचती । हाँ जीवन में क्षमतानुसार सभी लोग कुछ न कुछ काम करते ही हैं इतना मैंने भी करने का प्रयास किया है । जहाँ तक काम के साथ नाम का प्रश्न है मुझसे छोटी उम्र में ही गलती यह हुई कि मैंने डेल कार्नेगी को न सिर्फ पढ़ लिया बल्कि इस हद तक दिल पर ले लिया कि अपने मँुह से अपना नाम लेने तक में अपराध बोध सा होने लगा । पत्रकारिता के शुरुआती दिनों में ही मैंने जब चुनाव चकल्लस के नाम से कॉलम लिखना शुरु किया तो लम्बे समय तक "निरंकुश' पैन नेम से लिखा । इसका फायदा यह मिला कि छवि की चिन्ता और सब तरह के दबावों से मुक्त होकर न सिर्फ मैं लेखन में मैं तरह-तरह के प्रयोग कर पाया बल्कि लोगों की सच्ची प्रतिक्रिया जानने का भी मुझे अवसर मिला । इस सब ने मेरे लेखन का निरन्तर परिष्कार किया । इस बीच यह अवश्य हुआ कि हमारे ही कुछ साथियों ने पाठकों की जिज्ञासाओं के दौरान अपनी मौन मुस्कान से निरंकुश पैन नेम की लोकप्रियता का रसपान किया मगर प्रबन्धन के आग्रह पर जब मैंने अपने वास्तविक नाम से चकल्लस लिखना शुरु किया तो सच्चाई लोगों के सामने आ गई । जहाँ तक संगठनात्मक गतिविधियों अथवा कार्यक्रमों के आयोजनों का प्रश्न है मैंने जीवन में यह सीखा कि जो भी लोग आत्मप्रचार में उलझ जाते हैं बहुत लम्बे समय तक कोई टीम उनका साथ नहीं देती । स्वर्गय गुरुजी कन्हैयालालजी मधुकर द्वारा स्थापित अजमेर संगीत कला केन्द्र का मैं लम्बे समय तक सचिव रहा तथा इस दौरान दस से अधिक भव्य संगीत समारोहों के आयोजन में मैंने सीखा कि अनावश्यक एक्सपोजर से इन्सान न सिर्फ ख्वामखाह के विवादों से दूर रहता है बल्कि तनाव मुक्त भी रहता है । इसी तरह अजमेर फोरम की गतिविधियों में भी भव्य मैराथन दौड़ जैसे कई आयोजन इसीलिये सफल हो पाये क्योंकि हमारे सभी साथियों ने आत्म प्रचार से अपने आपको दूर रखा ।

प्र. आप अपने कैरियर के दौरान एक तरफ तो श्रमजीवी पत्रकारों के साथ श्रमिक गतिविधियों में सक्रिय रहे वहीं दूसरी तरफ पत्र मालिकों के साथ भी आपके सम्बन्ध बहुत ही अच्छे रहे । इस सन्तुलन का गुर क्या है ?
इस सन्तुलन का कोई तिलस्मी गुर नहीं हो सकता । जो जैसा है उसे उसी रूप में स्वीकार करना तथा जो आप हैं उसी रूप में स्वयं को अभिव्यक्त करना । यही हर काम को सरलता से करने का गुर है । किसी भी व्यावसायिक संस्थान के स्वामी का पहला हित उसके संस्थान का लाभ तथा इसकी प्रतिðा है । यदि आप उन्हें यह दोनों चीजें सुरक्षित रखने का विश्वास दिला दें तो वे कभी आपके शत्रु नहीं हो सकते । दूसरी तरफ किसी भी संस्थान के कर्मचारियों को चाहिये अपने अधिकार और सम्मान से काम करने का माहौल । यदि उन्हें यह सब मिलता है तो कोई कर्मचारी अपनी रोजी-रोटी का शत्रु क्यूं बनेगा । मैं आपको आज से लगभग 40 वर्ष पुरानी बात बताता हूँ । मैं उन दिनों दैनिक नवज्योति में डिप्टी चीफ सब एडिटर के पद पर काम कर रहा था । सर्व श्री मोहन राजजी भंडारी, श्री श्याम सुंदरजी एवं श्री नरेन्द्र चौहान मेरे वरिð जन हुआ करते थे । मेरा चक्कि पत्रकारिता जीवन का आरम्भिक दौर था इसलिये मैं सिर्फ काम सीखने और काम करने का आनंद ले रहा था । इसी दौर में पत्रकारों के लिये गठित पालेकर वेतन आयोग के एवार्ड की घोषणा हुई और पत्रकार साथियों को अपने अधिकार प्राप्त करने के लिये संगठित प्रयास करने की जरुरत का एहसास होने लगा । इस समय तक दैनिक नवज्योति में ट­ेड यूनियन का गठन तो हो चुका था मगर संस्थान के आठ या दस सदस्य ही इसके सदस्य थे । इनमें भी कोई पत्रकार सदस्य नहीं था । पालेकर एवार्ड की घोषणा के साथ ही दैनिक नवज्योति के पत्रकार साथियों ने भी सक्रियता दिखाई और नगर के सुभाष उद्यान में कर्मचारियों की एक बैठक आयोजित हुई संगठन का नये सिरे से गठन हुआ । नई परिस्थितियों में जब संगठन के अध्यक्ष पद का दायित्व संभालने की बारी आई, मेरी पूर्व आशंका के अनुरूप साथियों की निगाहें मेरी ओर घूम गई सभी सहयोगियों का स्नेह आरम्भ से मुझे सौभाग्य के रूप में मिला था मगर यही सौभाग्य मुझे इस समय काटों भरा ताज लगा क्योंकि वेतन आयोग को लेकर प्रबन्धन से टकराव सामने दिखाई दे रहा था । जबकि यह समय पत्रकारिता में मेरे लिये कैरियर बनाने का समय था । हाल ही में मुझे एक वर्ष के दौरान वेतन में दोहरा इन्क्रीमेन्ट मिला था जो इस संस्थान में एक असाधारण बात थी । मीटिंग में मौजूद साथियों के समक्ष मैंने प्रबन्धन के साथ अपने अच्छे रिश्तों की दुहाई देकर अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी निभाने से साफ मना कर दिया । उन दिनों हमारी सम्पादकीय टीम में मेरे एक अनुज साथी थे गजानन महतपुरकर गजानन ने सभी के सामने इस बात की दुहाई देकर मुझे झुकने पर मजबूर कर दिया कि अपने भाइयों के हित में आपको प्रबन्धन के साथ अपने मधुर रिश्तों से भी समझौता करना ही पड़ेगा । साथियों का ऐसा विश्वास देखते हुए मैंने जिम्मेदारी तो स्वीकार कर ली मगर अपनी शर्ते भी उनके सामने रख दी । कोई साथी संस्थान को किसी तरह का नुकसान पहुँचाने का प्रयास नहीं करेगा । अनुशासन हीनता अथवा प्रबन्धन के साथ कोई भी दुव्र्यवहार हुआ तो मैं तुरन्त पद छोड़ दूंगा । अपनी माँगे मनवाने के लिये हम धैर्य के साथ शांतिपूर्ण प्रयासों पर ही कायम रहेंगे, वगैरह वगैरहा सभी साथियों ने एक स्वर से मेरी शर्ते स्वीकार करते हुए सर्वाधिकार मुझे सौंप दिये । यह जिम्मेदारी को संभालते ही मैंने कर्मचारियों की वाजिब माँगों का एक चार्ट बनाया और प्रबन्धन को सौंपते हुए आग्रह किया कि यदि 15 दिवस के भीतर इन्हें लागू नहीं किया गया तो मैं स्वयं कार्यालय के बाहर आमरण अनशन पर बैठँूगा । ऐसा मैंने सिर्फ पत्र ही नहीं लिखा बल्कि मन में निश्चय भी कर लिया कि यदि वाजिब माँगों पर भी कार्रवाई नहीं हुई तो वास्तव में प्राण त्यागने तक के लिये अनशन शुरु कर दूँगा । यूनियन के अन्य साथियों ने भी आग्रह किया कि वे भी मेरे साथ अनशन करेंगे । मगर मैंने उन्हें सख्ती से मना कर दिया क्योंकि मुझे मालूम था कि वे लोग मेरी ताकत के बजाय कमजोरी ही साबित होंगे । पत्र के स्वामी श्री दीनबंधु चौधरी उन दिनों अनुसासनहीनता एवं यूनियनबाजी को लेकर बहुत ही सख्त हुआ करते थे मगर इस समय तक न सिर्फ काम की दृïि से मुझ पर विश्वास करने लगे थे बल्कि मुझे पुत्रवत स्नेह भी देते थोड़ी सी बात को ध्यान में रखते हुए मैंने उन्हें पत्र bिखा । इस बात का ध्यान रखा था कि उनके व्यक्तिगत सम्मान को कोई ठेस न पहुँचे । मेरे विश्वास ने काम किया और उसी रात लगभग दस बजे आदरणीय श्री दीनूजी, नवज्योति के वरिðतम सदस्य श्री मोहनराजजी भंडारी के साथ मेरे तत्कालीन निवास स्थान रघुनाथ भवन आ पहुँचे । श्री भंडारीजी जिनका मैं स्वयं बहुत सम्मान करता था । पहुँचते ही उन्होंने मुझे कहा कि दीनूजी किसी यूनियन की धमकी से डरकर यहां नहीं आये हैं वे यहा तुम्हारे व्यक्तिगत स्नेह के कारण आये हैं । श्री दीनूजी ने कहा कि रमेशजी आप अपने लिये कुछ माँगते तो मुझे खुशी होती मगर आप गलत लोगों के लिये लड़ाई लड़ रहे हैं । मैंने अत्यन्त विनम्रता पूर्वक उन्हें कहा कि मुझे तो आप बिना माँगे सब कुछ दे ही रहे हैं । मुझे अपने लिये कुछ नहीं चाहिये आप मेरे प्रति अपने स्नेह के बदले ही सही जरुरतमन्द साथियों का भला कर दीजिये । उन दिनों कर्मचारियों की सबसे बड़ी मांग उन्हें पे रोल पर लेने की थी । ऐसा हुए बिना उन्हें आने वाले दिनों में नये वेतन आयोग का लाभ मिलना भी संभव नहीं था । श्री दीनबंधुजी के सम्बन्ध में जैसा मैं समझ पाया हूँ यदि सही तरीके से कोई आग्रह किया जाये तो उनसे कुछ भी मनाया जा सकता है । काफी देर की बातचीत के बाद दीनबंधुजी अगले दिन कर्मचारियों के सामने खुलकर बातचीत करने पर सहमत हो गये । सुखद यह रहा कि उस वर्ष छः माह के अन्तर से ग्यारह कर्मचारियों को पे रोल पर लिया गया । मैं सात वर्ष तक नवज्योति कर्मचारी संघ का अध्यक्ष रहा । इस दौरान न चौधरी साहब से मेरे सम्बन्ध खराब हुए और न ही कर्मचारियों के साथ । अन्त में जब मैंने संगठन के अध्यक्ष का पद त्यागा दिलचस्प बात यह थी कि न प्रबन्धन मेरे पद त्याग के पक्ष में था और न सहयोगी कर्मचारी गण । जाहिर है आदर्श संतुलन के लिये कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं करना पड़ता । हमें इरादे सही रखने के साथ-साथ लोगों के समक्ष इन्हें सही रूप में प्रकट भी करना चाहिये भले ही तात्कालिक रूप से किसी को यह बुरा लगे ।

प्र. बातचीत से आप एक अन्तर्मुखी व्यक्ति लगते हैं मगर इसके बावजूद मित्रों के इतने बड़े समूह को कायम कैसे रख पाते हैं ।
आप सही कह रहे हैं । इस काम में निश्चय ही मुझे परेशानी का सामना करना पड़ता है । मेरे सारे ही मित्र मुझसे थोड़ा-थोड़ा नाराज भी रहते हैं । लम्बी भड़ास इकÆी हो जाये तो इनमें से बहुत से मित्र मिलकर बारुद भी उगल देते हैं । मगर जब मिलते हैं मैं स्वाभाविक रहता हूँ और थोड़ी ही देर में उनके सारे गिले शिकवे दूर हो जाते हैं । रिश्तों की लम्बी दूरी का राज यह है कि कमजोर याददाश्त के कारण मेरे मन में किसी के लिये कोई मलिनता ज्यादा देर रह ही नहीं पाती । मित्र तो बहुत दूर की बात है कोई व्यक्ति कभी दुर्भावना वश भी मेरे साथ बुरा कर देता है तो तात्कालिक रूप से मुझे गुस्सा अवश्य आता है । मन में निश्चय भी करता हूँ कि वक्त आने पर इसको सबक अवश्य सिखाऊँगा । मगर वक्त आने पर वह फिर मुझसे अपना काम निकलवाकर चला जाता है उसके चले जाने के बाद मुझे याद आता है कि इससे तो मुझे बदला लेना था ।

प्र. नई पीढ़ी के पत्रकारों से आप कुछ कहना चाहेंगे ?
मेरा इतना ही कहना है कि पत्रकारिता का कर्म सरस्वती की उपासना के समान है । इस उपासना के लिये मन की निर्मलता जरुरी है । आप जितने अच्छे इन्सान बनेंगे उतने ही अच्छे पत्रकार बनेगेें एक बात और नये युग के पत्रकारों में अहंकार और आक्रामकता बहुत अधिक झलकने लगी है । मेरी दृïि में अच्छा पत्रकार वह है जिसकी कलम तीखी मगर वाणी विनम्रतापूर्ण हो ।

प्र. कोई अन्य संदेश
अन्त में इतना ही कहूँगा कि इन्सानों को धर्म जाति या रंग के आधार पर बाँटना अब बन्द हो जाना चाहिये । हम अपने विवेक का रिमोट निहित स्वार्थ राजनेताओं के हाथ में सौंपकर पूरी पृथ्वी को आग के समन्दर में धकेल रहे हैं । इन्सान से इन्सान मिलता है तब ही दिल के गुलाब से खुशी की महक फूटती है । इस खुशबू के नशे में सारी कुंठाएं भुbाकर हर नुक्कड़ पर सिर्फ खुशियों के मेले लगने चाहिये ।



परिवार परिजनों की दृष्टि में

मधु अग्रवाल (धर्मपत्नी)
मेरी ज़िंदगी में दो लोगों का बहुत ज्यादा महत्व रहा है, उनको मैं भगवान् से भी ज्यादा मानती हूँ, एक मेरी मम्मी और दूसरे मेरे पति डॉक्टर रमेश अग्रवाल । बचपन में मेरे साथ जो हादसा हुआ तथा जिसकी वजह से मुझे आजीवन शारीरिक चुनौती झेbनी पड़ी, उसे देखते हुए मेरी जिदंगी इतनी बढ़िया नहीं होती अगर आज ये दोनों नहीं होते । पहले बचपन में मम्मी ने संभाला और शादी के बाद जिन्हें मैं भगवान् का दरजा देती हूँ मेरे पति ने संभाला और इसी वजह से मेरा जीवन स्वर्ग जैसा हो गया है । आज मेरे दोनों बच्चे जिन्हें मैं बहुत प्यार करती हूँ मेरे पति की वजह से ही सफल है और बहुत उन्नति कर रहे हैं । भगवान् से यही प्रार्थना है की इनकी 100 साल से भी लंबी उमर हो और ये दोनो बच्चों को इसी तरह संभालते रहे ।

उत्सव अग्रवाल (पुत्र)
मैं अपने आपको बहुत ही खुशकिस्मत मानता हूँ की मैं डॉ रमेश अग्रवाल का बेटा हूँ । पापा ने बचपन से ही हमें सही और गलत के बीच फर्क करना सिखाया । जो सीख हमेशा साथ रहेगी । मुश्किल से मुश्किल समय में पापा ने हमारा साथ दिया और आगे बढ़ने की ताकत दी, मुसीबत में हमारी ढ़ाल बनें और अच्छे समय में जमीन से जुड़े रहने की सलाह दी । सब कुछ तो शब्दों में बयान करना मुश्किल है बस इतना ही और कहूँगा की पापा ने हमेशा से मिलज़ुbकर रहना सिखाया है और खुद लोगों के बीच बहुत इज्जत कमाई है ।

प्रियंका अग्रवाल (बहू)
मैं बहुत ही खुश नसीब हूँ की मुझे डॉ. रमेश अग्रवाल जी की बहू बनने का सौभाग्य मिला । इस 8 वर्ष के सफर में मैंने पापा से बहुत कुछ सीखा है और उसे अपने जीवन में उतारा भी है । पापा ने मेरी संगीत की कला को पहचाना और इसका प्रयोग करने के लिए प्रोत्साहन भी दिया । मेरी यही आशा है की मेरा बेटा भी अपने दादू के पद चि…ों पर चले और उनका नाम रोशन करें ।

उद्भव अग्रवाल (पुत्र)
कर्म करो फल की चिंता मत करो । भगवद्गीता की इस पंक्ति ने मेरे जीवन पर बहुत महत्वपूर्ण प्रभाव डाला है । अपने कर्म पर ना कि उसके फल पर ध्यान देकर मैं अपनी कई मुश्किलों से जीतकर बाहर निकला हूँ । केवल एक पंक्ति नहीं भगवद्गीता का हर अध्याय मुझे और मेरे भैया को अच्छी तरह याद है तभी से जब से पिताजी ने हमें हमारे कॉलेज समय में रोजाना अध्याय समझाना शुरु किया था । भगवद्गीता की सीख से जिंदगी को देखने का नजरिया ही बदल गया और हमें धरती से जुड़े रहने की समझ मिली और हमारे आसपास सभी लोगों के प्रति हमारा स्नेह और प्यार भी बढ़ गया । पिताजी ने हमेशा से ही सीख के साथ-साथ अपने जीवन के संघर्षा का उदाहरण पेश करके हमें सिखाया है और वहीं सब सुनकर हमें बहुत साहस और शक्ति मिली है अपनी कठिनाइयों का सामना करने के लिए । हमें ना केवल पढ़ाई और कैरियर में आगे बढ़ने के लिए सीख दी है बल्कि हमेशा एक अच्छा इंसान बनने पर भी बहुत जोर दिया है । एक तरफ पिताजी ने परिवार के रिश्तों की जड़ों को मजबूत रखने का काम किया तो दूसरी तरफ मां ने यह ध्यान रखा कि हमारी परिवार के प्रति भावनाएं कभी भी हमें हमारी मंजिल को पाने में कोई बाधा ना खड़ी करें । पिताजी ने कड़ी मेहनत करके अपने जीवन में बहुत सफलता हासिल की है और हमें हमेशा आगे बढ़ने का मार्ग दिखाया है । उन्होंने एक मजबूत पेड़ बनकर अपनी शाखाओं को हर तूफान का सामना करने के काबिल बनाया है । मां ने हमारी भावनाओं को हमारी ताकत बनाया ना कि हमारी कमजोरी । माता-पिता ने संघर्ष करके और अपनी खुशियों का बलिदान देकर भैया और मुझे दुनियां की हर खुशी देने का प्रयास किया और उसमें सफल हुए है । माता-पिता के इसी प्यार के कारण हम जीवन में अपने लक्ष्यों को पाने में सफल रहे हैं और अपने परिवार को एक सुखी परिवार बना सके हैं । हमारी गलतियों को सुधारने के लिए मार की जगह प्यार की भाषा का सहारा लिया ।

अश्विनी अग्रवाल (पुत्रवधु)
एक बेटी के जीवन में उसके पिता से बड़ा कोई नायक नहीं होता यही रिश्ता उसके जीवन की सबसे बड़ी ताकत होती है जो उसे बचपन से बड़े होने तक अपनी मुश्किलों का सामना करने में मदद करती है । मैं जीवन में इतनी भाग्यशाली रही हूँ कि मुझे अपने ससुराल में आने पर भी मेरे ससुर जी ने एक पिता वाला प्यार दिया और अपनी बेटी के रूप में मुझे स्वीकार किया । पापा जी एक सादगी और विनम्रता की मिसाल हैं वह अपनी कामयाबी से हम सबको बहुत प्रेरित करते हैं । अपने जीवन में बड़े से बड़ा मुकाम हासिल करने के बावजूद वह बहुत पारिवारिक हैं और पूरे परिवार की छोटी से छोटी जरूरत का भी बहुत अच्छे से ख्याल रखते हैं । हमें उनकी कामयाबी पर बहुत गर्व है और खुद को उनके परिवार का एक हिस्सा मानकर बहुत भाग्यशाली समझते हैं । पापा जी के साथ सुबह की चाय पर गपशप और रात के खाने के बाद उनके हंसी मजाक के चुटकुले सुने बिना हमारा खाना हजम नहीं होता । हम सब उनके सिद्धांतों और उसूलों का बहुत सम्मान करते हैं और जीवन भर उन्हीं के दिखाए हुए मार्ग पर चलने की आशा करते हैं । पापा जी और मम्मी जी के असीम प्यार ने ही मुझे कभी अपने मायके की याद नहीं आने दी ।